Skip to main content

Posts

Showing posts from 2010

पुरानी मय

कहते हैं शराब जितनी पुरानी , उसका जायका उतना ही गहरा लगता है , हम पलकों पे आंसू थामे सदियों से बैठे है पर फिर भी स्वाद नमकीन ही लगता है! कहते है यह मदिरा जब बहती है तो ज़हन भी गिला हो जाता है हम अरसे से घूँट भरे बैठे है , पर हलक सूखा सा ही लगता है! कहते है यह मय जहाँ से गुजरती है , ज़ख्मो को सुखा देती है हम दिल को उसकी हर नशीली याद में डुबाये , गीले ज़ख्म लिए बैठे है ! सुना था की हर घूँट इंसान के दर्द को भुलाता है , हम पीकर , नींद उडाये उसके ही अक्स को आँखों में कैद किये बैठे है !

कहाँ खो गए रास्तें

This verse is dedicated to a person whom i spent very very wonderful time with and whom i have loved very much.Sometimes life has something else in store, so not necessary that there will always be same kind of time. कहाँ खो गए वोह रास्ते, साथ चले थे हम हस्ते हस्ते! वोह शख्स शायद मेरा ही अक्स था, इश्क में जिसके मैं मदमस्त था! कई जन्मो का नाता था कोई, लगता था अपना हमसफ़र,हमराही वोही! चिलचिलाती धूप में धडधडाती मोटरबाइक पे, काँधे पे रखा सर, शीतल छाया सा लगता, तू नहीं, तो छाया में भी, दिल सताया सा लगता! याद है बरसात में टपकती टपरी, हर पल में भरी बातें, चाय और मठरी, अब बरसात थम गयी, दिल गीला है और हर पल सूखा; तुझे अब भी उस टपरी पे याद करता हूँ, बस अब सूखे पल दिल में डुबो के खाता हूँ! याद है गणपति-मंदिर की सीढ़ी पे तेरा सारथि और मेरा पार्थ बनना फिर घर-ऑफिस के कुरुक्षेत्र में लड़े युद्ध पर चर्चा करना या फिर गोल-गप्पे खिला कर मुझ पर कभी-कभी खर्चा करना, अब तू नहीं तो, मंदिर में गणपति भी मुझे अनजाना ,पराया,पथराया सा लगता है, गोलगप्पे का पानी क्यूँ आँखों में उतर आया सा लगता है! याद है गुल बिजली

मेट्रो में घर

नाम है मेरा " इमानदार इन्सान , घर खर्चा चलाता जिसका भगवान् ! इस शहर में अक्सर तुम मुझे पाओगे , मौका मिले तो , किस्मत के साथ तुम भी सताओगे ! वहां उस बस की खिड़की से झांकता वोह चेहरा, या फिर थोड़ी सी कमाई पूँजी को हर पल देता पहरा ! धूप में मीलो चलते , धुएं खाता , शरीर से टपकता पसीना , या फिर कैद किये हज़ारो अरमान दिल यह कमीना ! मैं हूँ वोही एक आदमी आम, किराये के घर में भरा जिसके पुराना सामान ! कुछ साल पहले सुना एक शब्द प्रोपर्टी , लगा शायद अमीरों की होगी कोई अंग्रेजी झोंपड़ी ! पर जब देखा किराने की दुकानवाला भी है , फ्लैट का मालिक , अरमानो , अपेक्षायो के धक्के से गिरना इस जाल में था स्वाभाविक ! तो अन्धादुंध रेस में पनप उठा मेरा भी सपना , भागते शहर में जहाँ थम सकू , छोटा सा ऐसा घर हो अपना ! दिन भर के कठिन सफ़र , मिले एक मंजिल शांत, निडर हो , छुपकर देख सकू कुछ सपने हर रात ! रोशनदानो से उतरी शाम के आँचल तले लू गहरी सांस , खवाबो से कांपती

मैं विधि धनुष का एक तीर

काँप रहा है शरीर , पर थका नहीं है वीर ! मैं विधाता के विधि - धनुष पर चढ़ा एक और तीर , लक्ष्य तक है पहुंचना, सहस्त्र दिशाओ को चीर ! जीवन एक गाथा सा लगता , नाराज़ मुझसे विधाता सा लगता ! तन गया हूँ फिर प्रत्यंचा पर संघर्ष करने को मैं निडर ! प्रत्यंचा से लक्ष्य तक ही मेरा जीवन, इस काल में करूँगा गहरायिओं का भेदन तपाएगा मुझे काल , प्रवाह का घर्षण! लक्ष्य को विभक्त करना आसान नहीं , इस लम्बे सफ़र को तय करना आसान नहीं ! आरज़ू हजारो थी, पर आरजुओं का कोई छोर नहीं , विधि ही स्रोत्र है , विधि पर किसी का जोर नहीं , जिस दिशा बहो , उसे ही ख्वएइश बना लो , जो प्रवाह में मिले , उसे ही भेद चलो ! निशाना चूके भी तो क्या हुआ , मेरा जीवन फिर भी व्यर्थ नहीं , बिना संघर्ष इसका कोई अर्थ नहीं ! बहूँगा धारा के प्रवाह विरुद्ध , समर में मर , करूँगा अपने रक्त को शुद्ध ! विधि धनुष छोड़ेगा फिर काल - दिशाओ में हार गया तो भी क्या ,