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Showing posts from February, 2010

मेट्रो में घर

नाम है मेरा " इमानदार इन्सान , घर खर्चा चलाता जिसका भगवान् ! इस शहर में अक्सर तुम मुझे पाओगे , मौका मिले तो , किस्मत के साथ तुम भी सताओगे ! वहां उस बस की खिड़की से झांकता वोह चेहरा, या फिर थोड़ी सी कमाई पूँजी को हर पल देता पहरा ! धूप में मीलो चलते , धुएं खाता , शरीर से टपकता पसीना , या फिर कैद किये हज़ारो अरमान दिल यह कमीना ! मैं हूँ वोही एक आदमी आम, किराये के घर में भरा जिसके पुराना सामान ! कुछ साल पहले सुना एक शब्द प्रोपर्टी , लगा शायद अमीरों की होगी कोई अंग्रेजी झोंपड़ी ! पर जब देखा किराने की दुकानवाला भी है , फ्लैट का मालिक , अरमानो , अपेक्षायो के धक्के से गिरना इस जाल में था स्वाभाविक ! तो अन्धादुंध रेस में पनप उठा मेरा भी सपना , भागते शहर में जहाँ थम सकू , छोटा सा ऐसा घर हो अपना ! दिन भर के कठिन सफ़र , मिले एक मंजिल शांत, निडर हो , छुपकर देख सकू कुछ सपने हर रात ! रोशनदानो से उतरी शाम के आँचल तले लू गहरी सांस , खवाबो से कांपती

मैं विधि धनुष का एक तीर

काँप रहा है शरीर , पर थका नहीं है वीर ! मैं विधाता के विधि - धनुष पर चढ़ा एक और तीर , लक्ष्य तक है पहुंचना, सहस्त्र दिशाओ को चीर ! जीवन एक गाथा सा लगता , नाराज़ मुझसे विधाता सा लगता ! तन गया हूँ फिर प्रत्यंचा पर संघर्ष करने को मैं निडर ! प्रत्यंचा से लक्ष्य तक ही मेरा जीवन, इस काल में करूँगा गहरायिओं का भेदन तपाएगा मुझे काल , प्रवाह का घर्षण! लक्ष्य को विभक्त करना आसान नहीं , इस लम्बे सफ़र को तय करना आसान नहीं ! आरज़ू हजारो थी, पर आरजुओं का कोई छोर नहीं , विधि ही स्रोत्र है , विधि पर किसी का जोर नहीं , जिस दिशा बहो , उसे ही ख्वएइश बना लो , जो प्रवाह में मिले , उसे ही भेद चलो ! निशाना चूके भी तो क्या हुआ , मेरा जीवन फिर भी व्यर्थ नहीं , बिना संघर्ष इसका कोई अर्थ नहीं ! बहूँगा धारा के प्रवाह विरुद्ध , समर में मर , करूँगा अपने रक्त को शुद्ध ! विधि धनुष छोड़ेगा फिर काल - दिशाओ में हार गया तो भी क्या ,