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Showing posts from 2011

चुप बैठी आज़ादी !!

शहर  की बुलंद ऊंचाइयों पे , तिरंगे  ने  जब  अंगड़ाई  छोड़ी, ज़हन में दुबके  बैठी, मेरी  स्वतंत्रता  ने अपनी  चुप्पी तोड़ी! अखबार की पंक्तियों ने मेरी समझ को जगाया, देश में घट रही कालाबाजारी, भ्रस्टाचार, अराजकता ने सबको सताया, नेताओ, अफसरों और बाबुओ ने शहीदों के बलिदान को तमाचा लगाया, आज तिरंगे को छूती फिजा ने भी अपने अस्तित्व पे प्रश्न-चिन्ह लगाया! की थी यह आज़ादी हमने, सैकड़ो वर्षो में संचित, हुयी थी दशो दिशा, हर प्रान्त में समर-ए-आज़ादी में रक्त रंजित, उसी आज़ादी का देखो कैसे भ्रस्ट संचाली ने मज़ाक उड़ाया, आज सत्ता के ठेकेदरो ने देखो कैसे हमारी आज़ादी से मुजरा करवाया! यह कैसी स्वतंत्रता, जहाँ एक के पास है प्राइवेट विमान, तो दूर कहीं भूख से आत्महत्या कर रहे हजारो किसान, एक तरफ महंगाई तले घुट रहा सबका दम, तो खा रहा एक नेता खरबों का स्पेक्ट्रुम, मर रही शिशु  और जननी बगैर इलाज़, और खा गए करोड़ों के टीके, दवा दारु डॉक्टर साहब, जहाँ उदारीकरण का तमगा लगा, काला-चोर पी रहा गरीब का खून, कर रहा खुद लूट, रिश्वतखोरी, बलात्कार देश का क़ानून! कैसे भूल गए तुम, इतिहास के पिचले पन्ने में

खालीपन

I wrote this verse some years ago on the request of one of dear friend.Today i am sharing with you all here. खाली सा आसमान  था, खाली सा एक मंज़र, उस खालीपन में हर पल भी, खाली सा हो रहा था| उस मंज़र के खालीपन  को समेटती मेरी आँखें मानो, एक अँधा कुआँ सा था | ना कोई आवाज़ थी, ना कोई हलचल, ऐसे में तो सन्नाटा भी सो रहा था| उस सन्नाटे ने, उस ख़ामोशी ने, उस खालीपन ने , ना जाने कब, मेरी आँखों में पनाह पा ली| ना कोई कुछ कहता , ना कोई कुछ मांगता , आँखें  .. आँखें तो बस मंज़र को निशब्द हो कर ताकती रहती| फिर वोह एक पल आया, जब एक आइना सामने  आ  गया , कुछ अन्दर कैद  था , हुबहू मुझ जैसा, पर ना जाने क्यों बिलखने और बिखरने को तैयार | आँखें बस उस एक साए को ना समां पायी , शायद जिसने सबको समां लिया, वोह खुद ही की गहराई में डूब रही थी, खुद ही की ख़ामोशी में बहरा गयी थी, अंधे कुए में भी ना जाने कैसे पानी सा आ गया | जो कुछ था बहने लगा खालीपन, सन्नाटा, और ख़ामोशी सब कोई रुकसत करने लगे | पर फिर भी आँखों में , उस अक्स के लिए जगह कम पड़ गयी , वोह पनाह नहीं पा सकी|

आँखों की सलाईयाँ

सर्द राहो पे अरसे से चलते हुए, जब मेरे विश्वास की ठिठुरन बढ़ी, तभी होसलो की कोहरायी धूप ने मुंडेर पे होले से दस्तक दी | धूप देख, फिर से रूह  में अरमानो की बदली छाई, शितिलता की चट्टानें तोड़, हिम्मत की कुछ लहरें आई ! चलो आज फिर आँखों की सलायीयों में   कुछ लाल, पीले, हरे ख्वाब बुने, आज फिर रंगीन ऊनी गोलों में उस अंतहीन बेरंग गगन से लुकाछिपी खेले ! गयी सर्दी में ख्वाबो का स्वेअटर अधूरा रह गया था आस्तीनों पे कुछ धारीदार इच्छाएं उकेरी थी, कांधे पे कुछ लोग पिरोये थे, हलके रंग से थोडा प्यार बुना था और रुमनियात में भी कुछ फंदे डाले थे| इस मौसम में जब ट्रंक खोला तो देखा, स्वेअटर में से कुछ रिश्ते उधड गए है, दर्द के कुछ काले गहरे दाग छ़प गए है, अकेलेपन की धूल,स्वेअटर पे चढ़ी बैठी है| हर जाड़े,गए मौसम के कुछ लत्ते सुकून दे जाते हैं, वोह उधडे रिश्ते,वोह बिखरे लोग बड़े याद आते हैं, देख उन्हें आँखें नम अंगार बरसाती है, क्यूँ यह सर्दी हर बार इतना दिल सुलगाती है| पर क्या यह सिर्फ आज का सवाल है, यह तो हर साल,दिल का बवाल है तो क्यूँ ना फिर से नए रास्ते चुने, क