Skip to main content

चुप बैठी आज़ादी !!

शहर  की बुलंद ऊंचाइयों पे ,
तिरंगे  ने  जब  अंगड़ाई  छोड़ी,
ज़हन में दुबके  बैठी,
मेरी  स्वतंत्रता  ने अपनी  चुप्पी तोड़ी!


अखबार की पंक्तियों ने मेरी समझ को जगाया,
देश में घट रही कालाबाजारी, भ्रस्टाचार, अराजकता ने सबको सताया,
नेताओ, अफसरों और बाबुओ ने शहीदों के बलिदान को तमाचा लगाया,
आज तिरंगे को छूती फिजा ने भी अपने अस्तित्व पे प्रश्न-चिन्ह लगाया!



की थी यह आज़ादी हमने, सैकड़ो वर्षो में संचित,
हुयी थी दशो दिशा, हर प्रान्त में समर-ए-आज़ादी में रक्त रंजित,
उसी आज़ादी का देखो कैसे भ्रस्ट संचाली ने मज़ाक उड़ाया,
आज सत्ता के ठेकेदरो ने देखो कैसे हमारी आज़ादी से मुजरा करवाया!



यह कैसी स्वतंत्रता, जहाँ एक के पास है प्राइवेट विमान,
तो दूर कहीं भूख से आत्महत्या कर रहे हजारो किसान,
एक तरफ महंगाई तले घुट रहा सबका दम,
तो खा रहा एक नेता खरबों का स्पेक्ट्रुम,
मर रही शिशु  और जननी बगैर इलाज़,
और खा गए करोड़ों के टीके, दवा दारु डॉक्टर साहब,
जहाँ उदारीकरण का तमगा लगा, काला-चोर पी रहा गरीब का खून,
कर रहा खुद लूट, रिश्वतखोरी, बलात्कार देश का क़ानून!



कैसे भूल गए तुम, इतिहास के पिचले पन्ने में ही वीरो ने खून बहाया था,
रोशन करने हमारी आज़ादी, अपने जीवन को बारूद बना जलाया था,
लड़े वीर मंगल, तांत्या, टीपू और गरजती बिलजी सी रानी-ए-झाँसी,
तो क्रांतिवीर भगत, राजगुरु और सुखदेव चढ़ गए हँसते- हँसते फांसी,
सुभाष के साथ हिंद के उबलते खून ने  युद्ध की बिगुल बजाई,
राष्ट्र-पिता गाँधी की अहिंसा-सत्याग्रह ने भी हुंकार लगायी,
जब बारूद और लहू से खेली जाती हर दिवाली और होली,
वीरो में तलवारों, बंद्को के बीच सुनी जाती ग़ज़ल कव्वाली,
दो-सौ वर्षो के संघर्ष यज्ञ में लाखो वीर आहूत हुए,
तब हम जाकर दासता के बंधन से मुक्त हुए!


हे हिंद-वतन के  पुत्रो, अब तुम "इंडिया शाइनिंग" की गहरी निद्रा से जागो,
अपने कुबीकल, एनुअल पैकेज और फेसबुक प्रोफाइल से बाहर झांको,
हमे धोखा देने वाले, लूटने वाले इस भ्रस्त तंत्र को दागो,
उतारो उन्हें तख़्त से, जो निगल गए हमारे लाखो,
जो रक्त बर्फा गया, उसे लावा बना उब्लाओ,
और इस शिथिल व्यवस्था की ईंट से ईंट बजाओ,
यकीन है मुझे फिर से हमें आज़ादी मिलेगी,
अमन, सर्वहित, सर्व-सुख की बहार हर तरफ खिलेगी!





Comments

Popular posts from this blog

आँखों की सलाईयाँ

सर्द राहो पे अरसे से चलते हुए, जब मेरे विश्वास की ठिठुरन बढ़ी, तभी होसलो की कोहरायी धूप ने मुंडेर पे होले से दस्तक दी | धूप देख, फिर से रूह  में अरमानो की बदली छाई, शितिलता की चट्टानें तोड़, हिम्मत की कुछ लहरें आई ! चलो आज फिर आँखों की सलायीयों में   कुछ लाल, पीले, हरे ख्वाब बुने, आज फिर रंगीन ऊनी गोलों में उस अंतहीन बेरंग गगन से लुकाछिपी खेले ! गयी सर्दी में ख्वाबो का स्वेअटर अधूरा रह गया था आस्तीनों पे कुछ धारीदार इच्छाएं उकेरी थी, कांधे पे कुछ लोग पिरोये थे, हलके रंग से थोडा प्यार बुना था और रुमनियात में भी कुछ फंदे डाले थे| इस मौसम में जब ट्रंक खोला तो देखा, स्वेअटर में से कुछ रिश्ते उधड गए है, दर्द के कुछ काले गहरे दाग छ़प गए है, अकेलेपन की धूल,स्वेअटर पे चढ़ी बैठी है| हर जाड़े,गए मौसम के कुछ लत्ते सुकून दे जाते हैं, वोह उधडे रिश्ते,वोह बिखरे लोग बड़े याद आते हैं, देख उन्हें आँखें नम अंगार बरसाती है, क्यूँ यह सर्दी ह...

पुरानी मय

कहते हैं शराब जितनी पुरानी , उसका जायका उतना ही गहरा लगता है , हम पलकों पे आंसू थामे सदियों से बैठे है पर फिर भी स्वाद नमकीन ही लगता है! कहते है यह मदिरा जब बहती है तो ज़हन भी गिला हो जाता है हम अरसे से घूँट भरे बैठे है , पर हलक सूखा सा ही लगता है! कहते है यह मय जहाँ से गुजरती है , ज़ख्मो को सुखा देती है हम दिल को उसकी हर नशीली याद में डुबाये , गीले ज़ख्म लिए बैठे है ! सुना था की हर घूँट इंसान के दर्द को भुलाता है , हम पीकर , नींद उडाये उसके ही अक्स को आँखों में कैद किये बैठे है !

शरद का इंतज़ार

गए हफ़्ते बारिश की बूँदों को अलविदा कहा!! वक़्त ज़रा तनहाइयों में गुज़रा सूनि आँखों में शरद का रास्ता देख रहा था... कल रात दूधिया चाँदनी और बादामी रात में यादों के मीठे चावल पकाकर   बालकनी में रखे भी थे  पर.. सुबह की चीख़ती रोशनियों ने जब ज़ोर से दस्तक दी.. तो शरद की झूठी खीर को चखना भूल गया... पर  क्या हुआ शाम तो फिर भी आएगी,  दिन भर चाँद और शरद दोनो का बालकनी में इंतज़ार रहेगा...