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मैं विधि धनुष का एक तीर

काँप रहा है शरीर,
पर थका नहीं है वीर !
मैं विधाता के विधि-धनुष पर चढ़ा एक और तीर,
लक्ष्य तक है पहुंचना, सहस्त्र दिशाओ को चीर!

जीवन एक गाथा सा लगता ,
नाराज़ मुझसे विधाता सा लगता !
तन गया हूँ फिर प्रत्यंचा पर
संघर्ष करने को मैं निडर!

प्रत्यंचा से लक्ष्य तक ही मेरा जीवन,
इस काल में करूँगा गहरायिओं का भेदन
तपाएगा मुझे काल, प्रवाह का घर्षण!

लक्ष्य को विभक्त करना आसान नहीं ,
इस लम्बे सफ़र को तय करना आसान नहीं !
आरज़ू हजारो थी, पर आरजुओं का कोई छोर नहीं,
विधि ही स्रोत्र है, विधि पर किसी का जोर नहीं ,
जिस दिशा बहो , उसे ही ख्वएइश बना लो ,
जो प्रवाह में मिले , उसे ही भेद चलो !

निशाना चूके भी तो क्या हुआ ,
मेरा जीवन फिर भी व्यर्थ नहीं ,
बिना संघर्ष इसका कोई अर्थ नहीं !

बहूँगा धारा के प्रवाह विरुद्ध ,
समर में मर, करूँगा अपने रक्त को शुद्ध!
विधि धनुष छोड़ेगा फिर काल - दिशाओ में
हार गया तो भी क्या , बजेगा मेरा ही गान हवाओं में!



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