Skip to main content

मैं विधि धनुष का एक तीर

काँप रहा है शरीर,
पर थका नहीं है वीर !
मैं विधाता के विधि-धनुष पर चढ़ा एक और तीर,
लक्ष्य तक है पहुंचना, सहस्त्र दिशाओ को चीर!

जीवन एक गाथा सा लगता ,
नाराज़ मुझसे विधाता सा लगता !
तन गया हूँ फिर प्रत्यंचा पर
संघर्ष करने को मैं निडर!

प्रत्यंचा से लक्ष्य तक ही मेरा जीवन,
इस काल में करूँगा गहरायिओं का भेदन
तपाएगा मुझे काल, प्रवाह का घर्षण!

लक्ष्य को विभक्त करना आसान नहीं ,
इस लम्बे सफ़र को तय करना आसान नहीं !
आरज़ू हजारो थी, पर आरजुओं का कोई छोर नहीं,
विधि ही स्रोत्र है, विधि पर किसी का जोर नहीं ,
जिस दिशा बहो , उसे ही ख्वएइश बना लो ,
जो प्रवाह में मिले , उसे ही भेद चलो !

निशाना चूके भी तो क्या हुआ ,
मेरा जीवन फिर भी व्यर्थ नहीं ,
बिना संघर्ष इसका कोई अर्थ नहीं !

बहूँगा धारा के प्रवाह विरुद्ध ,
समर में मर, करूँगा अपने रक्त को शुद्ध!
विधि धनुष छोड़ेगा फिर काल - दिशाओ में
हार गया तो भी क्या , बजेगा मेरा ही गान हवाओं में!



Comments

Popular posts from this blog

आँखों की सलाईयाँ

सर्द राहो पे अरसे से चलते हुए, जब मेरे विश्वास की ठिठुरन बढ़ी, तभी होसलो की कोहरायी धूप ने मुंडेर पे होले से दस्तक दी | धूप देख, फिर से रूह  में अरमानो की बदली छाई, शितिलता की चट्टानें तोड़, हिम्मत की कुछ लहरें आई ! चलो आज फिर आँखों की सलायीयों में   कुछ लाल, पीले, हरे ख्वाब बुने, आज फिर रंगीन ऊनी गोलों में उस अंतहीन बेरंग गगन से लुकाछिपी खेले ! गयी सर्दी में ख्वाबो का स्वेअटर अधूरा रह गया था आस्तीनों पे कुछ धारीदार इच्छाएं उकेरी थी, कांधे पे कुछ लोग पिरोये थे, हलके रंग से थोडा प्यार बुना था और रुमनियात में भी कुछ फंदे डाले थे| इस मौसम में जब ट्रंक खोला तो देखा, स्वेअटर में से कुछ रिश्ते उधड गए है, दर्द के कुछ काले गहरे दाग छ़प गए है, अकेलेपन की धूल,स्वेअटर पे चढ़ी बैठी है| हर जाड़े,गए मौसम के कुछ लत्ते सुकून दे जाते हैं, वोह उधडे रिश्ते,वोह बिखरे लोग बड़े याद आते हैं, देख उन्हें आँखें नम अंगार बरसाती है, क्यूँ यह सर्दी ह...

शरद का इंतज़ार

गए हफ़्ते बारिश की बूँदों को अलविदा कहा!! वक़्त ज़रा तनहाइयों में गुज़रा सूनि आँखों में शरद का रास्ता देख रहा था... कल रात दूधिया चाँदनी और बादामी रात में यादों के मीठे चावल पकाकर   बालकनी में रखे भी थे  पर.. सुबह की चीख़ती रोशनियों ने जब ज़ोर से दस्तक दी.. तो शरद की झूठी खीर को चखना भूल गया... पर  क्या हुआ शाम तो फिर भी आएगी,  दिन भर चाँद और शरद दोनो का बालकनी में इंतज़ार रहेगा... 

आतंकवाद का ब्लैक होल

स्याहा  है, सब  काला स्याहा है, रोशनियाँ जो कुछ पल पहले जली, अब बुझ गयी अँधेरा ऐसा ब्लैक होल के जैसा भयावह, अनंत, निष्ठुर , ठंडा , बस लहू का प्यासा उम्मीदों की किरणों को भी बस पीता ही जाये ये कैसा बदला है जिसने अनगिनत सूरजों को निगल लिया ये कैसा बदजात  बारूद है, जो नन्हों को मारने बन्दूको से निकल भी गया ??? शोक के दरिये बहा, तुमने क्या हासिल किया? On "another darkest day" in humanity ( Taliban attacks in Peshawar)