I wrote this verse some years ago on the request of one of dear friend.Today i am sharing with you all here.
खाली सा आसमान था,
खाली सा एक मंज़र,
उस खालीपन में हर पल भी,
खाली सा हो रहा था|
उस मंज़र के खालीपन को
समेटती मेरी आँखें मानो,
एक अँधा कुआँ सा था |
ना कोई आवाज़ थी,
ना कोई हलचल,
ऐसे में तो सन्नाटा भी सो रहा था|
उस सन्नाटे ने,
उस ख़ामोशी ने,
उस खालीपन ने ,
ना जाने कब,
मेरी आँखों में पनाह पा ली|
ना कोई कुछ कहता ,
ना कोई कुछ मांगता ,
आँखें ..
आँखें तो बस मंज़र को निशब्द हो कर ताकती रहती|
फिर वोह एक पल आया,
जब एक आइना सामने आ गया ,
कुछ अन्दर कैद था ,
हुबहू मुझ जैसा,
पर ना जाने क्यों बिलखने और बिखरने को तैयार |
आँखें बस उस एक साए को ना समां पायी ,
शायद जिसने सबको समां लिया,
वोह खुद ही की गहराई में डूब रही थी,
खुद ही की ख़ामोशी में बहरा गयी थी,
अंधे कुए में भी ना जाने कैसे पानी सा आ गया |
जो कुछ था बहने लगा
खालीपन,
सन्नाटा,
और ख़ामोशी सब कोई रुकसत करने लगे |
पर फिर भी आँखों में ,
उस अक्स के लिए जगह कम पड़ गयी ,
वोह पनाह नहीं पा सकी|
आँखें अब भी आइने में ताक रही हैं,
सन्नाटा,ख़ामोशी और खालीपन ने भी,
मुझे खाली कर डाला;
जो कुछ पल के लिए हमसाये बने,फिर वोह भी अकेला छोड़ चले,
और साया, साया कभी अपना हुआ ही नहीं |
समझ नहीं आता कैसे खुद को खुदी करू ,
खुदाई से मिल गया हूँ, पर खुदी को फिर भी नहीं,
ये जहाँ और यह लोग ,
ये कायदे क़ानून ,
ये रसमें,कसमें, वादे ,
ये प्यार,धोखे,रिश्ते नाते ,
ये पाप और पुण्य ,
यह ईश्वर और यह इंसानियत ,
सब तो आजमा लिया फिर भी,मैं पूरा क्यूँ नहीं हुआ ???
पर हाँ ख़त्म होता लम्हा शायद मुझे समझ रहा है,
इसीलिए तो इंतेज़ार ज़ारी है पूरा होने का |
खाली सा आसमान था,
खाली सा एक मंज़र,
उस खालीपन में हर पल भी,
खाली सा हो रहा था|
उस मंज़र के खालीपन को
समेटती मेरी आँखें मानो,
एक अँधा कुआँ सा था |
ना कोई आवाज़ थी,
ना कोई हलचल,
ऐसे में तो सन्नाटा भी सो रहा था|
उस सन्नाटे ने,
उस ख़ामोशी ने,
उस खालीपन ने ,
ना जाने कब,
मेरी आँखों में पनाह पा ली|
ना कोई कुछ कहता ,
ना कोई कुछ मांगता ,
आँखें ..
आँखें तो बस मंज़र को निशब्द हो कर ताकती रहती|
फिर वोह एक पल आया,
जब एक आइना सामने आ गया ,
कुछ अन्दर कैद था ,
हुबहू मुझ जैसा,
पर ना जाने क्यों बिलखने और बिखरने को तैयार |
आँखें बस उस एक साए को ना समां पायी ,
शायद जिसने सबको समां लिया,
वोह खुद ही की गहराई में डूब रही थी,
खुद ही की ख़ामोशी में बहरा गयी थी,
अंधे कुए में भी ना जाने कैसे पानी सा आ गया |
जो कुछ था बहने लगा
खालीपन,
सन्नाटा,
और ख़ामोशी सब कोई रुकसत करने लगे |
पर फिर भी आँखों में ,
उस अक्स के लिए जगह कम पड़ गयी ,
वोह पनाह नहीं पा सकी|
आँखें अब भी आइने में ताक रही हैं,
सन्नाटा,ख़ामोशी और खालीपन ने भी,
मुझे खाली कर डाला;
जो कुछ पल के लिए हमसाये बने,फिर वोह भी अकेला छोड़ चले,
और साया, साया कभी अपना हुआ ही नहीं |
समझ नहीं आता कैसे खुद को खुदी करू ,
खुदाई से मिल गया हूँ, पर खुदी को फिर भी नहीं,
ये जहाँ और यह लोग ,
ये कायदे क़ानून ,
ये रसमें,कसमें, वादे ,
ये प्यार,धोखे,रिश्ते नाते ,
ये पाप और पुण्य ,
यह ईश्वर और यह इंसानियत ,
सब तो आजमा लिया फिर भी,मैं पूरा क्यूँ नहीं हुआ ???
पर हाँ ख़त्म होता लम्हा शायद मुझे समझ रहा है,
इसीलिए तो इंतेज़ार ज़ारी है पूरा होने का |
आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा. कृपया यहाँ भी आयें और इसके समर्थक बन कर हिंदी का मान बढ़ाये. हम आपका इंतजार करेंगे.
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हम आपका इंतजार करेंगे.